शानदार, अतुलनीय, अविस्मरणीय ....और न जाने क्या-क्या कहा जा सकता है राजीव जैन साहब के अखबार प्रेम को। करीब ढाई साल के 613 क्वंटल अखबार जिसमें जयपुर से प्रकाशित कई अखबार भी शामिल हैं, अपनी अंतिम यात्रा पर चले गए। मैं वहीं था जब यह अंतिम संस्कार की प्रक्रिया चल रही थी। दुख तो मुझे भी हो रहा था कि हर एक अखबार एक-एक पन्ने को बनाने में हमारी बिरादरी की कितनी मेहनत, खून व पसीना शामिल होता है। राजीव जी द्वारा ये रद्दी निकालने के पीछे का प्रायोजन ये नहीं कि वे घर बदल रहे थे, बल्कि कुछ व्यçक्तगत कारण है। रुपए-पैसे का मोह भी नहीं। मैंने देखा अगर उन्हें कोई इतना बड़ा घर मिलता जिसमें वे हमारी बिरादरी की मेहनत से उगाए गए पेड़ों को स्टोर कर सकते तो वे उसे वहां भी ले जाते। खैर दिन बुधवार को उन्होंने मुझे सवेरे 10.30 के आसपास बुलाया उसके बाद से 4.30 बजे तक हम लोग सिर्फ उसी रद्दी के बारे में ही बतियाते रहे। खाना भी नहीं खाया था सवेरे। सिर्फ पानी व पारले-जी से काम चल रहा था। मैं तो श्वेतधूम्र दंडिका के सेवन से बीच-बीच में अपने आप को रिचार्ज कर ले रहा था। पर वे तो शाकाहारी हैं ना। मैंने उन अखबारों के कुछ पन्ने पलटे तो सबसे पहले हरीशचंद्र सिंह जी एक स्टोरी देखी। हिंदी में थी और बहुत ही शानदार। सिंह सर आजकल जयपुर के एक अंग्रेजी अखबार में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। मुझे लगा और राजीव जी भी यही बोल रहे थे कि अगर दिन एक्सक्लूसिव स्टोरीज को पत्रकारिता में आ रहे नए बीजों में खाद के रूप में डाला जाए तो बहुत ही बेहतर होगा। अगर वही रद्दी इस समय के रिपोर्टर को दे दी जाए तो उसमें से बहुत कुछ सीाने को भी मिलेगा। खैर जो चला गया....उसके लिए कैसा पछताना....बस यही मनाऊंगा कि राजीव को अगली बार इतनी रद्दी बेचनी न पड़े। तब तक उनका अपना एक घर हो जिसमें एक बेसमेंट हो और वो वहां अपने अखबारों की लाइबे्ररी बना सकें। ......आमीन
तीन शहर तीन मरीज़ और कोरोना
4 years ago
bhai aapne kahan se doodnda ise . sach me aise log bhi hote hai kya???
ReplyDeletelekin jo bhi hai badiya hai ....... likhte rahiye ,jamte rahiye aur jamate rahiye ....